अशोक पांडे, दिल्ली:
भोजन को लेकर हमारे उत्साह की कल्पना इस बात से की जा सकती है कि हम नूडल्स से भरे डोसे से लेकर तंदूरी शिकंजी जैसे वैज्ञानिक व्यंजनों का आविष्कार कर चुके हैं। चीन से लेकर मंचूरिया और इटली से लेकर फ्रांस तक का नाम लेकर हमने ऐसे-ऐसे कारनामे परोसना सीख लिया है कि खुद इन मुल्कों के लोग उन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं। इसके बावजूद सच यह है कि हम लोग अपने भोजन को लेकर सबसे बेपरवाह कौम हैं। एक छोटा सा प्रयोग कर के देखिए। जो पहला व्यक्ति नज़र आए उससे पूछिए साबूदाना कैसे बनता है या हींग कहाँ से निकलती है। अगर कोई बच्चा दिखे तो उससे पूछिए बेसन और आटा कहाँ से आता है या पॉपकॉर्न कहाँ उगता है। आपको इतने किस्म के जवाब मिलेंगे कि आप हैरान हो जाएंगे।
एक अमेरिकी लेखिका हुईं मैरी कैनेडी फिशर (1908-1992)। भोजन के बारे में लिखती थीं। उनकी कुल सत्ताईस किताबें छपी हैं। उनके शानदार लेखन के बारे में मशहूर कवि ऑडेन कहते थे, “समूचे अमेरिका में मैं किसी और को नहीं जानता जो उनसे बेहतर गद्य लिखता हो।” अंडे से लेकर पानी उबालने के तरीकों तक के बारे में लिखने वाली मैरी की किताबों में न सिर्फ व्यंजन बनाने के तरीके पाए जाते हैं, वे एक से एक कहानियों-किस्सों-लोकगाथाओं से अटी पड़ी हैं। उनकी सबसे मशहूर किताब ‘द आर्ट ऑफ़ ईटिंग’ के एक खंड का शीर्षक है – ‘हाउ टू कुक अ वूल्फ।’ ऐसी ही एक और महिला एलिजाबेथ डेविड के बारे में मैंने कभी लिखा था। इंग्लैण्ड की रहने वाली एलिजाबेथ ने 1950 के दशक की शुरुआत में भोजन को लेकर असाधारण लेख लिखने शुरू किये। उन लेखों ने एग्ज़ोटिक स्वाद से वंचित अंग्रेजों को उनकी गुप्त स्वाद ग्रंथियां खोजना सिखाया और उसके खाने की मेज को अधिक संपन्न और आनंदपूर्ण बनाया। सारे देश की खानपान की आदतों में बदलाव आना शुरू हुआ। लोग उनके लिखे के छपने का इन्तजार करते थे और जिन पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे उनकी बिक्री में कई गुना बढ़ोत्तरी हो गयी।
मेक्सिको की स्टार लेखिका लॉरा एस्कीवेल ने तो 1989 में छपे अपने उपन्यास ‘जैसे चॉकलेट के लिए पानी’ को लिख कर साहित्य में ‘ला फिक्सियोन कोसीना’ यानी रसोई का साहित्य जैसी अद्भुत विधा की शुरुआत की. आज मेक्सिको का कोई नगर ऐसा नहीं जहाँ इस उपन्यास के नाम पर कोई रेस्तरां न हो। आलू से लेकर चावल और शराब से लेकर आइसक्रीम तक खानपान सम्बंधित कोई विषय नहीं जिस पर दुनिया भर में असंख्य ग्रन्थ न लिखे गए हों. बहुत मेहनत और शोध से तैयार किये गए इन ग्रंथों को लिखने में लोगों ने अपने जीवन लगा दिए।
बड़ी सभ्यताएं चीज़ों को सम्हालने, संजोने में यकीन करती हैं। भोजन और उसकी बेहतरी को लेकर जैसा काम दूसरे देशों में लगातार होता देखने को मिलता है, पता नहीं हमारे यहाँ वैसा क्यों नहीं है। उल्लेखनीय पुरानी किताबों में ले-दे कर मुझे एक तो चालुक्य राजा सोमेश्वर की लिखी ‘मानसोल्लास’ की याद आ रही है या मौलाना अब्दुल हलीम शरर की ‘गुज़िश्ता लखनऊ’ की। और भी होंगी लेकिन उनके बारे में न देखने को मिलता है न सुनने के। हाँ पिछले कुछ सालों में भोजन को लेकर बहुत सारी भारतीय किताबों से बाजार पटा है, लेकिन उनमें से अधिकतर में या तो बटर चिकन बनाने के तरीके पाए जाते हैं या फोटोग्राफी का कमाल दिखाया जाता है। हमारे पारंपरिक भोजन के न जाने कितने रहस्य दादियों-नानियों की पीढ़ियों के साथ दफ़न होते चले गए. मोमो-चाऊमीन के ठेले गाँवों तक पहुँच चुके हैं। विश्वगुरु बना ही चाहते हैं अपन।
(उत्तरांचल के रहनेवाले लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन ।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।